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कविता

कठकरेजी

श्यामसुंदर दुबे


समय में
हम करें तो क्या करें;
कली जो फूल की
पांखुरी बन कर झरी
किस अधर पर इसको धरें।

लू-लूपट होते कपोलों पर
उठते भभूकों में
वाष्प बनकर बात उड़ती है,
चौराहे हुए अंकवार से
विफरी हुई हर गली
अनी भरने में आप मुड़ती है

स्वयं की पहचान
ग्लेशियर बन अड़ गई
किस तरह अब नेह के निर्झर झरें।

जिन दर्पणों में
देखते थे हम अपना
अक्स, वे टूट कर टुकड़े हुए,
वे हरित वन
जल गए, मिलते हिरन
जिस जगह बिछुड़े हुए

स्वप्न वंचित
आँख में सूने पड़े
आकाश को और कब तक हम भरें।
 


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